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फेक नहीं : नेक एनकाउंटर

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हो सकता है कि , इस बात पर ही पहली आपत्ति हो कि क्या पुलिस द्वारा हाल ही में मार गिराए गए दुर्दांत अपराधी विकास दूबे के इस पूरे कृत्य को इस तरह से भी देखा समझा जा सकता है क्या ? प्रश्न ये भी उठाया जा सकता है / जा रहा है कि ये पुलिस ,व्यवस्था ,प्रशासन , न्याय व्यवस्था आदि जैसे संस्थाओं के ऊपर आए अविश्वास का परिणाम न माना जाए ?इसके आलावा ऐसे तमाम अगर मगर वाले प्रश्न , संदेह , आरोप लगाए जा रहे हैं जो स्वाभाविक है |

इस विषय पर कुछ भी लिखने कहने और समझने से पहले एक सबसे जरूरी प्रश्न जिसे बाक़ी आरोपों और इल्ज़ामों (किसने मारा , क्यों मारा , और सबसे हल्ला इस बात पर कि कैसे मारा , सीधा मार ही क्यों दिया ) के बीच कहीं दबा दिया जा रहा है या दरकिनार किया जा रहा है वो ये कि मरने वाला कौन था ? 

विकास दूबे जिसके मरने के बाद आसपास के तमाम गाँव आपस में मिठाई खिला कर एक दूसरे को इस बात की बधाई दे रहे हैं कि अब उन्हें किसी ऐसे डर और आतंक के साये में आगे नहीं जीना पड़ेगा | वो विकास दूबे जो किसी मजबूरी में या अपने/अपनों के ऊपर हुए किसी अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए पेशेवर मुजरिम नहीं बना था बल्कि वर्षों पूर्व आई एक पिक्चर “अर्जुन पंडित ” में निभाए गए एक चरित्र से प्रेरित होकर ,खुद को अपराध की दुनिया का बेताज बेख़ौफ़ और बेलगाम डॉन बनाने के सपने के लिए इस दुनिया में आया था |

एक बार अपराध की दुनिया में कदम रख देने के बाद , भारतीय राजनीति के सबसे निकृष्ट और घिनौने चरित्र , राजनेताओं की आपराधिक सांठ गाँठ का एक मोहरा बनते उसे देर नहीं लगी | उत्तर प्रदेश ,बिहार जैसे राज्यों में जहां सत्ता तक पहुँच बनाने और फिर उस वर्चस्व को कायम रखने के लिए इन जैसे पट्ठों को हमेशा ही पाल पोस कर एक हत्यारे को समाज के लिए आतंक और दहशत का पर्याय बनाने के स्तर तक का संरक्षण दिया जाने की संस्कृति रही हो ,वहाँ ऐसे अनेकों विकास दूबे आज भी संरक्षित और सुरक्षित हैं  |

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे पुलिस , मीडिया , राजनीतिज्ञ और खुद अदालती व्यवस्था पर न सिर्फ आम लोगों द्वारा सवाल खड़े किये जा रहे हैं बल्कि इन्हें और इन सबको ही , इन हालातों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है | सबसे पहले सोचने वाली बात ये है कि ये सब और इन जैसी तमाम वर्गों के लोग , इनमें कार्यरत व्यक्ति यहीं के इसी समाज के ,हमारे आपके बीच के लोग हैं और हमेशा होते हैं | समाज को पुलिस वैसी ही मिलेगी , डाक्टर ,शिक्षक , राजनेता और अपराधी भी वैसे ही मिलते हैं जैसा समाज खुद होता है | इसलिए यदि समाज के किसी को भी किसी से शिकायत है या होती है तो प्रश्न सबसे पहले खुद से पूछा जाना जरुरी हो जाता है | 

विकास दूबे की मौत के इस सारे घटनाक्रम में ,विनय तिवारी जैसे पुलिसकर्मी और इनकी सारी करतूत पार्श्व में चली जाती है | यदि विकास दूबे अपनी गैंग के पचास साठ लोगों के साथ उस पूरे क्षेत्र पर अपने आतंक और हिंसा का राज़ चला रहा था तो वो सिर्फ और सिर्फ इसलिए क्यूंकि उसके साथ हर कदम पर पुलिस , उसका उपयोग करने वाले राजनीतिक दल और राजेनता , कमज़ोर व धीमी न्याय व्यवस्था थी | यही कारण था कि एक हत्या से शुरू हुआ ये सफर पचास से अधिक निर्दोष लोगों की ह्त्या और फिर आठ पुलिस वालों तक की नृशंस ह्त्या तक निर्बाध और निरंतर चलता रहा , और आगे भी यूँ ही चलता रहने वाला था |

सबसे बड़ी विडंबना ये है कि इस और ऐसे तमाम घटनाओं में,  परिस्थितियों को उलझाने और भ्रम फैला कर फिर खुद ही उसका शिकार होने वाले तमाम लोग न ही तथ्यात्मक रूप से सही होते हैं न ही इसके विधिक , प्रशासनिक ,न्यायिक पहलुओं की जानकारी रखते हैं | नतीजा होता है आधा ज्ञान ज्यादा खतरनाक वाला | जिसे जिस विषय की रत्ती भर भी जानकारी नहीं होती , समझ नहीं होती वो उतने ही पुरज़ोर तरीके से सिर्फ अपनी बात को सामने रख देता है और फिर उसे सही गलत साबित करने के लिए अपने इस प्रपंच को और आगे बढ़ता है |

ये सिलसिला यहीं नहीं रुकता , मामला तब और भी अधिक गंभीर हो जाता है जब विषय को समझने वाले लोग भी , अपने अपने स्वार्थ और एजेंडे के तहत काम करने /कहने की विवशता के कारण जान बूझ कर ऐसे मामलों को अपने कथ्यों और करनी से एक अलग ही दृष्टिकोण दे देते हैं |

प्रश्न उछाल कर तमाशा करने और फिर आराम से देखने वालों से क्या नहीं पूछा जा सकता कि ऐसे घटनाक्रमों पर सिर्फ और सिर्फ सम्बंधित पक्षों , प्रभावित वर्ग और व्यक्तियों को कुछ भी कहने सुनाने का अधिकार है फिर चाहे तो पुलिस हो ,अदालत हो ,या उस अपराधी का परिवार |

अन्ततः , सारी चीख पुकार और चिल्ल पौं को सिरे से दरकिनार करके सिर्फ ये सोचा जाना और समझा जाना चाहिए कि एक व्यक्ति जो अपने कुकर्मों की वजह से समाज , देश , कानून ,व्यवस्था के लिए नासूर सा होकर एक लाइलाज बीमारी बन गया था और पूरी इंसानियत के लिए एक खतरा बन चुका था उसका अंत निश्चित रूप से जरूरी था और वो हो गया | सोचा जाना चाहिए उसके परिवार और नाबालिग बच्चे के विषय में जो इस सारे प्रकरण पर हो रहे तमाशे को देख कर भविष्य में इस समाज ,पुलिस , व्यवस्था को अपना दुश्मन मान और समझ कर कल को एक दूसरा विकास दूबे बनने की राह पर न चल पड़े जैसा की आमतौर पर हो जाता है | 

 

महामारी के बाद

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jhajikahin.com

इस शताब्दी के शुरुआत में ही विश्व सभ्यता किसी अपेक्षित प्राकृतिक आपदा का शिकार न होकर विरंतर निर्बाध अनुसंधान की सनक के दुष्परिणाम से निकले महाविनाश की चपेट में आ गया |  किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि कभी इंसान की करतूत उसके लिए ऐसे हालात पैदा कर देंगे जब कुदरत के माथे ,इंसान के विनाश का दोष नहीं आकर खुद उसके हिस्से में ये अपराध आएगा |

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अभी तो इस महारामारी की सुनामी से उबरने निकलने की ही कोई सूरत निकट भविष्यमे निकलती नहीं दिखाई दे रही है किन्तु समाज का हर वर्ग, विश्व का हर देश , प्रशासन , अर्थशास्त्री अभी से ये आकलन करने में लग गए हैं की महामारी के वैश्विक परिदृश्य के क्या हालात होंगे ? वैश्विक समाज और विश्व अर्थव्यवस्था किस ओर मुड़ेगी | विश्व महाशक्तियों के आप सी संबंधों का समीकरण क्या और  कितना बदल जाएगा ? सामरिक समृद्धता  के लिए मदांध देश क्या इस महामारी के बाद भी शास्त्र-भंडारण की ओर ही आगे बढ़ेंगे या फिर चिकित्स्कीय संबलता की ओर रुख करेंगे ये देखने वाली बात होगी |
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चिकित्स्कीय अनुसंधान के विश्व भर के तमाम पुरोधाओं को अभी तक कोरोना को पूरी तरह समझ उसका कारगर और सटीक तोड़ निकालने में सफलता हासिल हो सकने की फिलहाल कोई पुख्ता जानकारी नहीं है | तो अब जबकि पूरे विश्व को इसकी चपेट में आए छ महीने से भी अधिक हो चुके हैं और इसका प्रवाह और प्रभाव दोनों ही रोके से रुक नहीं पा रहे हैं | ऐसे में समाज शास्त्री अपने अध्ययन की दिशा उसी और मोड़ चुके हैं जब कोरोना के बाद महसूस की जाने वाली चुनौतियों से समाज को जूझना पडेगा , उन्हीं बातों का आकलन विश्लेषण किया जा रहा है |
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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | समाजशास्त्र का यह सिध्दांत सूत्र भी  सर्वथा प्रतिकूल होकर रह गया  है | मनुष्य आज अपने सही गलत अन्वेषणों ,प्रयोगों का दुष्परिणाम यह उठा रहा है कि अपने ही समाज में रहते हुए अपने ही समाज से निषिद्ध होने को विवश हो गया है | समाज शास्त्र का दूसरा सूत्र कि ताकतवर या मजबूत के ही बचे रहने या  उसके अपने अस्तित्व को बचाने के संघर्ष चक्र में ,उसके परिस्थितियों से लड़ कर पार पा जाने की सम्भावनाएँ ही अधिक प्रबल होती हैं | इस मिथक को भी इस महामारी ने इस अर्थ में तोड़ा कि विश्व के तमाम शक्तिशाली देश इस महामारी की चपेट में आकर त्रस्त पस्त हो चुके हैं और अब भी इन पर कोरोना का कहर बरप रहा है |
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आज विश्व समुदाय ने इस अलप समय में ही देख लिया कि एक सिर्फ इंसान को थोड़े दिनों तक प्रकृति से मनमानी करने से अवरुद्ध किए जाने भर से प्रकृति ने इतने ही दिनों में खुद कि स्थति कितनी दुरुस्त कर ली | तो इस महामारी ने यह भी बता दिया कि इंसानी सभ्यता को हर हाल में प्राकृतिक तारतम्यता व् सामंजस्य का सिद्धांत ही अपनाना होगा |
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इंसान घरेलू प्राणी है ,यह एक बार फिर प्रमाणित हुआ | जिस तरह से आपदा की आहट  सुनते ही विश्व से लेकर देश के अंदर भी एक प्रांत से दूसरे प्रांत में लोगों ने अपने घर , अपनों के पास जाने का जो ये प्रवाद दौर वर्तमान में हुआ है वो इतिहास में हुए बहुत से असाधारण विस्थापनों में से एक है |
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अपने रोजगार और भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए गाँव की बहुत बड़ी ,आबादी  पलायन/विस्थापन का शिकार दशकों पहले शुरू हुई थी | गाँव ,कस्बों से शहर ,नगर और महानगर बसते  बढ़ते रहे और गाँव खाली होते चले गए | शहरों में  आ कर सालों तक सिर्फ जीने के अस्तित्व संघर्ष में उलझा ये ग्राम्य समाज क्या अपने गाँव घरों में अपने जीवन यापन के विकल्प तलाशेगा ?
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बिहार ,उत्तर प्रदेश ,बंगाल ,उड़ीसा का मान संसाधन विकास सूचकांक प्रदर्शन दशकों से ही बहुत पिछड़ा रहा है | ऐसी आपदाओं के समय इन राज्यों का प्रशासन और प्रबंधन क्या ,कितना  विकास कर सका , क्या कितना सीख पाया ये हालत भी इन्हें परिलक्षित करते हैं | महामारी के रूप में सामने आए इस अपर्याताशित आपदा और ऐसी दूसरी आपत्तियों के समय ही व्यवस्थाओं की असली परख होती है और अभी यही परख हो रही है |
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ये महामारी काल कितना लंबा खिंचेगा अभी तो यही तय नहीं है किन्तु इसके बाद वाले समय में विश्व का सामाजिक ,आर्थिक और भौगोलिक समीकरण भी परिवर्तित होकर नए  मापदंड  स्थापित करेगा ये तय है |

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वैश्विक महाशक्तियों यथा अमेरिका ,चीन ,फ्रांस ,रूस ,इटली  जैसे देश अलग अलग स्थितियों परिस्थितयों में खुद को विश्व फलक पर पुनर्स्थापित करने की जद्दोज़हद के बीच अविकसित और विकाशील देश भी इस महामारी के प्रभाव से उबरकर खुद को बचा पाने के लिए नए सिरे से संघर्षशील होंगे |
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भारत इस महामारी के विरुद्ध  विश्व के अन्य देशों की तुलना में अब तक इस लड़ाई में सम्मानपूर्वक अपने लोगों को यथासंभव बचा सकने के कारण वर्तमान में पहले ही अगली पंक्ति में आ चुका  है | विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी बोर्ड के अध्यक्ष पद पर किसी भारतीय का चयन , संयुक्त राष्ट्र परिषद् के अस्थाई सदस्य  के रूप सर्वाधिक मतों से चयन , ने इस ओर स्पष्ट ईशारा कर भी दिया है | इस बीच चीन को मिल रही वैश्विक नकारात्मक प्रतिक्रया के कारण वहां से पलयान को उद्धत उद्योग परियोजनाएं आदि की पहली प्राथमिकता भारत ही होगा | इसकी शुरुआत भी करीब करीब हो चुकी है |

Corona v\s Domestic Herbs

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Since last many days I am receiving many comments regarding the availability of hydroxychloroquine ,the medicine recently was in news for treating people the pandemic disease covid-19 ,worldwide.

Many of our readers asked regularly from where to buy this medicine , at what price can it be bought and many more regarding all this . Let me clear one thing first that in our country where we people have least death rate although the number of affected persons from covid is still increasing day by day .

So what we people are doing exactly despite taking all precautions e.g. social distancing , washing hands using sanitizers is boosting our immunity system regularly so that despite all the preventive measures if anyone came in touch with this disease should overcome without any serious issue or need of medicine and hospitals . This resulted that we have the best recovery rate worldwide .

I along with my family including my kids are taking help from my domestic garden and with the soup made by neem leaves , gloy (Tinospora Cordifolia) leaves , tulsi , ginger leaves , mint leaves and lemon drops [although it is very bitter in taste but works as amrit or amrut as immunity booster . 

 

I take few leaves of all these herbs and boil it for 10 to 15 minutes and pour one complete lemon drops to make the soup drinkable ,due to its very harsh bitterness .

Here is the video  https://youtu.be/uGGvrM5IbYg   on my you tube channel describing all the stuff . as there is no end  seems coming of this disease in forthcoming days so the best we can and we are doing to prevent this corona is consuming  our domestic herbs as our  immunity booster . 

corona v\s domestic herbs

link of my you tube video

https://youtu.be/uGGvrM5IbYg

मुकदमों के निपटान में नहीं होगी देरी

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case disposal system

देश के अन्य सरकारी संस्थानों की तरह ही देश की सारी विधिक संस्थाएं ,अदालत , अधिकरण आदि भी इस वक्त थम सी गई हैं।  हालाँकि सभी अदालतों में अत्यंत जरूरी मामलों की सुनवाई के लिए बहुत से वैकल्पिक उपाय किये गए और वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये उनमें सुनवाई करके आदेश जारी भी किये जा रहे हैं।  ऐसे ही बहुत सारे आदेश कोरोना टेस्ट किट और उनके मूल्य के निर्धारण आदि मामलों में दिए भी गए हैं।
किन्तु आम जन और विशेषकर अदालतों में अपने लंबित मुकदमों मामलों के सभी पक्षकार इस बात से जरूर चिंतित और जिज्ञासु होंगे कि ऐसे में जब पूरे लगभग दो माह का समय ऐसा निकल गया है जब उनके मामलों की सुनवाई नहीं हुई तो इससे उनके मामलों पर क्या और कितना असर पडेगा।
पहले बात करते हैं उन मामलों की जो अदालतों में लंबित थे और जिन पर सुनवाई जारी थी तो सभी अदालतों ने तदर्थ और अंतरिम व्यवस्था देते हुए सभी लंबित मामलों को एक चरणबद्ध  व नियोजित तरीके से इस प्रकार स्थगन दिया है कि सभी मुकदमों को सिर्फ और सिर्फ एक तारीख के लिए टाला गया है ठीक उस स्थिति जैसे जब अदालत के पीठासीन अधिकारी अवकाश पर होते हैं या फिर अदालतों में मुक़दमे का स्थानांतरण होने में जो समय लगता है।  
 
अदालत के खुलते ही पहले से लंबित मुकदमों के साथ साथ इन सभी स्थगित मुकदमों की सुनवाई भी तीव्र गति से की जाएगी।  अभी से ही न्याय प्रशासन ने न सिर्फ वर्ष 2020 के लिए निर्धारित ग्रीष्म व शीत ऋतु के अवकाशों को रद्द करने का इशारा दे दिया है बल्कि सांध्य कालीन अदालत लोक अदालत और विशेष अदालतों की विशेष व्यवस्था से जल्दी से जल्दी सबकुछ पटरी पर लाने की तैयारी कर ली है।  
इन सबके अतिरिक्त विशेष महत्व के बहुत जरूरी मुकदमों और मामलों को सम्बंधित पक्षकारों द्वारा दिए गए प्रार्थनापत्र के आधार पर सुनवाई में प्राथमिकता देने की भी व्यवस्था रहेगी ही।
ध्यान रहे कि देशबन्दी से रोजाना घटित हो रहे लाखों अपराध अपने आप ही रुक से गए हैं , या कहें कि अपराधियों को अपराध कारित करने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा रहे और ये इस लिहाज़ से भी ठीक है कि जो पुलिस अभी कोरोना काल में देशबन्दी को सफल बनाने में अपना जी जान समर्पित किये हुए है उसे कम से कम इस मोर्चे पर अपना ध्यान देने की जरूरत नहीं पड़ रही है।  हालांकि छिटपुट घटनाओं के कारण पुलिस को अपराधों की तरफ से पूरी तरह मुक्ति तो नहीं ही मिली है।
जैसी  कि समाचार मिल रहे हैं इस समय में घरेलू  हिंसा के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई है जो कि इसलिए भी स्वाभाविक सी लगती है कि शराब ,सिगरेट ,गुटखे आदि के व्यसन से बुरी तरह लिप्त समाज इस समय आने वाले भविष्य में अपने रोजगार व्यापार के प्रति नकारात्कमक अंदेशे के कारण अधिक हताश व क्रोधित भी होगा , जो स्वाभाविक रूप से अनेक वाद विवादों के संस्थापन का कारण बनेगा ।  लेकिन ये मामले किसी भी तरह से अदालत के मुकदमे निस्तारण की रफ़्तार को धीमा नहीं करेंगे।
जहां तक मेरा आकलन है देशबन्दी खुलने के एक माह के भीतर ही देश की सभी अदालतें अपनी पुरानी व्यवस्था और पुराने रफ़्तार में ही आ जाएंगी।  अभी तो यही आशा की जा सकती है।

क्रिकेट -यादें और हम

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क्रिकेट -यादें और हम

 

#येउनदिनोंकीबातथी

एक पोस्ट पर अनुज देवचन्द्र ने टिप्पणी करते हुए ये कह कर कि आपकी क्रिकेट में फिरकी वाली गेंदबाजी की याद अब भी कभी कभी आ जाती है | और हम फिर से उन्हीं दिनों के यादों में गोते लगाने लगे।  स्कूल के दिनों से ही क्रिकेट खेलने का शौक था मगर कद में तब बहुत लम्बे नहीं थे और सहपाठी अपने मजबूत कद काठी और तेज़ गेंदबाज़ी से हमेशा खौफ में डाले रखते थे सो उस वक्त तक बल्लेबाजी में बहुत ज्यादा निपुण नहीं हुए थे।  अलबत्ता स्कूल से आने के बाद और छुट्टियों के दिनों में आपसी मैच खेलने का बहुत बड़ा प्रचलन था उन दिनों और हम भी कौन सा अलग थे उन दिनों में।  जिसके पास बैट बॉल हुआ करता था वो स्वयं घोषित गावस्कर कपिलदेव से कम नहीं होता था।  विकेट तो हम लकड़ी काठी ईंट दीवार पर तीन लाईनें खींच कर किसी से भी बना ही लेते थे।

खैर , तो असल कहानी शुरू हुई गाँव पहुँचने पर।  यहाँ ये बता दूँ कि अनुज संजय मेरे साथ ऐसे ही रहता था  राम के साथ लक्षमण और बिलकुल स्वभाव भी उनके जैसा ही तीक्ष्ण।  मजाल है किसी की जो कोई बात मुझ तक पहुँचने से पहले उससे टकरा कर ना आए।  खेल से लेकर पढ़ाई तक सबमें हम एक दूसरे से अभिन्न थे।  इसलिए किसी भी क्रिकेट टीम के दो स्थाई सदस्य तो हम दोनों भाई ही हुआ करते थे।  और क्रिकेट ही क्यों , बैडमिंटन ,शतरंज , वॉलीबाल , तैराकी , सायक्लिंग सब में हम साथ साथ ही रहते थे।  अनुज के मेरे से सिर्फ डेढ़ वर्ष छोटा होने के कारण हमें अक्सर सब जुड़वां ही समझते थे।

गाँव पहुंचे तो गाँव के आम के बागानों के बीच स्थानीय बच्चों के साथ धीरे धीरे खेला शुरू किया।  धीरे धीरे नियमित खेलने लगे और दोस्ती से बहुत ही अच्छी  टीम बन गई।  क्रिकेट का दीवानापन किसी भी लिहाज़ से गाँवों में शहरों से कम नहीं था।  ड्यूस बॉल खरीदने के लिए पूरी टीम के सदस्यों द्वारा एक एक दो दो रूपए इकट्ठा करना , सायकल से दूर दूर तक के गाँवों में मैच खेलने जाना , उन्हें अपने गाँव में बुलाना।  धीरे धीरे वहां भी टूर्नामेंट प्रतियोगिता आदि की शुरुआत होने लगी थी।  वहाँ स्थानीय बच्चों को तब सिर्फ तेज़ सीधे सपाट गेंदबाज़ी की आदत थी।  और यहीं से शुरू हुआ हमारा करतब।

क्रिकेट में कुछ अलग सीखने करने के जुनून ने गेंद पर पकड़ , सीम पर उँगलियों की स्थिति , कलाइयों के उपयोग से गेंद को फिरकी देना यानि स्पिन उन दिनों में अपने स्तर पर हम उसमें सिद्धहस्त हो चुके थे।  मैं लेग स्पिन में माहिर था और अनुज ऑफ स्पिन में।  शुरुआत के दस ओवर तेज़ गेंदबाज़ों के हिस्से रहता था और उसके बाद गेंद आती थी हम दोनों भाईयों के हिस्से में।

मेरे हाथों में बचपन के चोट ,फ्रैक्चर आदि के कारण मेरी कुहनियों की थोड़ी अलग स्थिति बॉलिंग के लिए स्पिन कराने वाली आदर्श स्थिति बना देती थी।  बहुत अर्से बाद नरेंद्र हिरवानी और फिर शेन वार्न को वही सब करते देखा तो सोच रहे थे कि इनसे भी कहीं अधिक घातक हुआ करते थे हम तो।  तो अगले दस ओवर में हम विपक्षी टीम की पूरी कमर तोड़ दिया करते थे।  जब तक बल्लेबाजों को ये समझ आए कि असल में बिलकुल बहार जाती गेंद को छोड़ कर उन्हें निश्चितं नहीं होना है तब तक वो गेंद घूम कर विकेट गिरा दिया करती थी।

बहुत जल्दी ही इसकी बदौलत हमने आसपास के गाँवों की बहुत सी नामी गिरामी टीम को  देखते देखते ही रसातल पर ला दिया।  अभ्यास के दौरान विश्विद्यालय की टीम से खेलने वाले एक भैया आज़माने के लिए मुझे बॉलिंग की चुनौती देते हुए कहने लगे दिखाओ एक ओवर में हमें भी करके।  जब तक वो उस अप्रत्याशित फिरकी के लिए तैयार होते उन्हें लगातार दो गेंदों पर दो बार क्लीन बोल्ड कर दिया।  मैदान में सीटियां और हल्ला हो गया गया।  फिर क्या था वो तब तक भाँप गए थे हमारी कारीगरी अगले चार गेंदों में उन्होंने जम कर धुनाई की।

बल्लेबाजी में कुछ कुछ श्रीकांत वाला अंदाज़ रहा जिन्हे क्रिकेट में पिंच हीटर कहा जाता है ,यानि गेंद का अगर बल्ले से संपर्क हुआ तो फिर वो सीधा सीमा पार नहीं तो हम मैदान के बाहर।  चौथे नंबर पर बल्लेबाजी करने के लिए उतरते हम बहुत बार गेंदबाज़ों की लाइन लेंथ बिगाड़ दिया करते थे।  ऐसे ही एक अचानक हुए मैच में जो खेल के मौसम के शुरू होते ही चुनौती स्वरूप हमें खेलने के लिए पड़ोस के गाँव में जाना पड़ा था।  बिना अभ्यास के गई हमारी टीम को पहले बल्लेबाजी करनी पड़ी। कुल २० ओवर के मैच में मैंने अकेले ही 19 ओवर दो गेंदे खेलीं और पूरे मैच में मैदान के हर तरह हर तरह के शॉट मार मार के दूसरी टीम को बुरी तरह हताश कर दिया था।  वो यादगार पारी रही थी बल्लेबाजी के लिहाज़ से।

एक पड़ोस के गाँव की टीम को हम कभी भी नहीं हरा पाए भरपूर कोशिश करने के बावजूद भी ,जब मौक़ा आया भी कभी एक आध बार तो वे समय से लड़कर विकेट उखाड़ कर हमें ही मैदान से खदेड़ दिए।  उन दिनों ये भी आम बात हुआ करती थी।

क्रिकेट के अलावा बैडमिंटन , वॉलीबॉल में भी जबरदस्त खेल कर धूम मचा देते थे।  फुटबॉल तो हम लोग गँवारों की तरह खेलते थे सिर्फ गेंद लेकर भागते जाना।  एक बार मैच के लिए अन्य किसी गाँव में फुटबॉल खेलने के लिए गए हम बहुत से खिलाड़ियों को बार बार रैफरी द्वारा फाउल देकर रेफरी खुद झुझंला कर बोले ,अबे कुछ नियम वियम पता है तुम लोगों को फुटबॉल का।  हमने कहा हाँ , बस इतना की विपक्षी के गोल में गेंद दे मारनी है।  उसने और विपक्षी टीम ने भलमनसाहत दिखाते हुए हमें बस कूटा नहीं बाक़ी बेइज्जती में कोई कमी नहीं रखी।

ओह क्या दिन दे वे भी और क्या खेल थे वे भी , तो

पहली फोटो अभी एक वर्ष पहले छोटी बहन के यहां उदयपुर में बच्चों के साथ यूँ ही खेलते हुए

और दूसरी हमारे गाँव के उसी खेल के मैदान की जिस पर हम अभ्यास किया करते थे।

गाँव में क्रिकेट का खेल का मैदान

#येउनदिनोंकीबातथी

साढ़े सात साल के भाई साहब

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साढ़े सात साल के भाई साहब

 

 

“भाई साहब मुझे भी “

मंदिर की कतार में खडे उस शख्स ने, जो यूं तो एकटक मंदिर के प्रवेश द्वार के पीछे भगवान की मूरत और वहां साथ ही दीवार पर लगी पर अपना ध्यान लगाए हुए थे , अचानक ही मुड कर उस आवाज़ की ओर देखा । हमेशा की तरह ,मंगलवार और शनिवार को एक निश्चित समय पर कुछ गरीब लोगों नुमा जीवों (उन्हें वो जिस तरह से हाथ पसार कर दूसरे के सामने खाने के लिए कुछ , प्रसाद के रूप में मिल जाने के लिए कुछ , और अन्य सभी तरह के कुछ की खातिर हाथ फ़ैलाए बैठे देखता उससे उसे अंदाज़ा हो गया था कि ये मानव शरीर प्राप्त वो जीव हैं जिन्हें अब भी दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती बिना किसी की दया के , इसलिए वे गरीब नुमा लोग जीव ही हैं )का एक झुंड मंदिर के बाहर बैठ जाता ।

“भाई साहब मुझे भी “, उसने चौंक कर उधर देखा , क्योंकि ये आवाज़ एक बच्चे की थी , अमूमन तौर पर बच्चों के मुंह से अंकल मुझे भी या बाबू जी मुझे भी जैसा ही कुछ सुनने को मिलता है , सो चौंक उठना लाजिमी था । उसने देखा कि पांच उससे भी कम बरस का एक छोटा सा बच्चा जो उस जीवों के झुंड का एक हिस्सा था , ये आवाज़ उसकी थी । हैरान कर देने वाली बात ये थी कि वो जिसे भाई साहब कह रहा था , वो भाई साहब , एक साढे सात आठ साल का बच्चा था जो अपने माता पिता के साथ मंदिर आया हुआ था , दोनों हाथों में छोले पूरी के दोने लिए हुए एक एक करके उस झुंड के सभी लोगों में बांट रहा था

बच्चा जो पांच साल का था उसके मुंह से ये स्वाभाविक तौर पर निकला था शायद , वजह ये थी शायद कि उसे लगा कि कहीं वो बच्चा , अपने किसी बचपने में कहीं उसे छोड न जाए । मंदिर की कतार में प्रभु के दर्शन पाने के लिए खडे उस व्यक्ति की दिमाग में यही बात गूंज रही थी और वो ईश्वर से पूछ रहा था कि बताओ प्रभु ,

“आखिर ये तुम्हारी दुनिया में एक पांच साल का बच्चा , कुछ खाने के लिए पाने की आस में एक साढे सात साल के बच्चे को भाई साहब  कहने को क्यों मजबूर है ????”

क्यों ठीक है न ???

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default featured image for jha ji kahin

वो संसद पर ,मुंबई ,दिल्ली और जाने कितने शहरों में आतंक और मौत का नंगा नाच करते रहे ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

वो सेना पर ,पुलिस पर पत्थर बरसाते रहे ,
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

वो विश्वविद्यालयों में भारत के टुकड़े करने के मंसूबे के साथ जैसे करते रहे ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

वो बार बार हिन्दू धर्म ,मान्यताओं ,देवताओं का अपमान करते रहे ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

वो बार बार तिरंगे का ,वन्दे मातरम् का ,भारत माता की जय कहने का तिरस्कार करते रहे
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

वो रेल बस घर दफ्तर फूँकते रहे,सरकारी निजी सब कुछ जलाते रहे ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

वो सड़कों को घेर कर उनपर महीनों बैठ कर कानून पुलिस को ठेंगा दिखते रहे ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

आज वो , जानबूझ कर बीमारी के बीज लिए सबके बीच जहर बो रहे हैं ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

वो डाक्टरों ,नर्सों के सामने नंगे होकर अपनी तालीम दिखाते रहे ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

तुमने कहा बार बार कहा हर बार कहा ,हर मुसलमान आतंकी नहीं होता ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

तुमने कहा ,हर मुसलमान राष्ट्रदोही नहीं होता ;
तुमने कहा सब थोड़ी हैं उनमें शामिल ,सबको क्यों निशाना बनाया जा रहा है ,हमने कहा ठीक है

तुम सीधे सीधे ये क्यों नहीं कह देते की हर मुसलमान इंसान नहीं होता ; हम कह देंगे ठीक है

नहीं अब हम कुछ नहीं कहेंगे अब हम ठीक करेंगे और फिर कहेंगे कि ठीक है

क्यों ठीक है न ???

वैकल्पिक विधिक उपचार बनाम न्यायिक व्यवस्था

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Fast Track Courts

देश की तमाम संचालक व्यस्थाओं में आज किसी भी प्रकार से जो व्यवस्था अंततः केंद्र में आ ही जाती है वो है देश की न्यायिक व्यवस्था | अदालतों में न्याय हेतु याचिका दायर कर अपने मुकदमों के  निष्पादन की प्रतीक्षा करते देश के अवाम के लिए अदालतों को आज इससे भी अधिक करना पड़ रहा है | रोज़ सैकड़ों की संख्या में दाख़िल की जा रही जनहित याचिकाओं की बाढ़ से निपटने के अलावा अदालतें खुद भी बहुत बार संवेदनशील मामलों को देखते हुए स्वतः संज्ञान लेकर भी इन मुकदमों की संख्या में इज़ाफ़ा हो जाता है | यही कारण है कि अब प्रतिवर्ष बनाई और स्थापित की जा रही सैकड़ों नई अदालतों के बावजूद भी अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि वो भी निरंतर हो रही है | हालात दिनों दिन विस्फोटक होते जा रहे हैं जिनसे निपटने के लिए कुछ ज्यादा कारगर करना और अभी करना बहुत जरूरी हो गया है |

न्यायिक व्यवस्था में सुधारों की बात चलते ही साढ़े तीन करोड़ से अधिक वादों के निस्तारण की बात सबसे पहले आ जाती है | ऐसा भी नहीं है की खुद सरकार व न्याय प्रशासन ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया | वास्तव में देखें तो पाते हैं की न्याय की सर्वसुलभता व विवादों के निस्तारण के लिए पिछले दिनों न्याय प्रशासन की ओर से विधिक सेवा व संरक्षण ,मध्यस्थता प्रक्रिया ,लोक अदालत व सांध्यकालीन आदालतें तथा न्याय प्रक्रिया में प्ली बार्गेनिंग व्यवस्था जैसे प्रयगोन को सफलतापूर्वक न सिर्फ अपनाया गया बल्कि इसके परिणाम भी काफी सकारात्मक दिख रहे हैं | इसी को देखते हुए इन प्रयोगों को पूरे देश भर में आगे बढ़ाया जा रहा है |

अदालतों में बढ़ते हुए मुकदमों के बोझ को काम करने के तमाम प्रयासों के बावजूद अदालतें और न्यायाधीशों की संख्या ूत के मुंह में जीरे के सामान ही लग रही है | असल में इसकी बी एक वजह है | अदालतों में मुकदमों की औसत आवक दर उसके निस्तारण की औसत दर से कहीं अधिक है | समाज में बढ़ता बेतहाशा अपराध, सरकार द्वारा विभिन्न विषयों पर बनाए जा रहे नए कानून ,समाचार व प्रसार माध्यमों की सुलभता के कारण इन कानूनों के प्रति आम लोगों की सचेतता व जानकारी तथा प्रति वर्ष देश में अधिवक्ताओं की बढ़ती संख्या आदि ही कुल मिलाकर स्थिति को इस दिशा तक ले आए हैं |

इस परिप्रेक्ष्य में सबसे अहम सवाल ये है कि तो क्या आखिर कभी भी ख़त्म हो पाएगा ए मुकदमों का अम्बार ? क्या आम लोगों को कभी त्वरित न्याय मिल पाने की उम्मीद रखनी चाहिए ? क्या कभी भारतीय न्याय व्यवस्था देश के सभी नागरिकों के साथ एक जैसा व्यवहार कर पाने के अपने तथाकथित आदर्श को सच में ही पा सकेगी ? और ऐसे अनेकों ही क्या आज जनमानस के ,न्यायपालिका पर सालों से बने भरोसे को चुनौती देते से प्रतीत हो रहे हैं |

अब समय आ गया है जब प्रयोगों के इस नए दौर में न्यायिक निस्तरः के अन्य बेहतर और तेज़ विकल्पों पर भी विमर्श किया जाए | विधि क्षेत्र में किए जा रहे शोध व् प्रयोगों में निःसंदेह इन विषयों पर भी काम किया जा रहा होगा | पिछले दिनों एक प्रदेश सरकार ने आम लगों को सरकारी चिकित्सा सेवा को  बनाने के लिए मुहल्ला क्लीनिक नामक छोटी किन्तु सुनियोजित चिकित्सालय सह औषधालय उपलब्ध कराने की पहल की थी जो बहुत ही सफल साबित होती दिख रही है |

विधिक व्यवस्था के शोधकर्ता व परामर्शदाता अब इस दिशा में कार्य  कर रहे हैं लोगों को “मुहल्ला लीगल क्लीनिक” उपलब्ध करवाने ,जहां विवाह ,तलाक ,मध्यस्थता ,मुआवजे का निराकरण ,आपसी लेन देन संबधी विवादों के लिए विधिक उपचार देने हेतु विशेष प्रशिक्षण प्राप्त और पूर्ण विधिक अधिकारिता वाले विशेषज्ञों को न्याय निस्तारण में हिस्सेदारी देकर स्थति में क्रांतिकारी परिवर्तन लेन जैसी योजनाओं को कार्यमूर्त रूप दिया जा सके |

वादी या याची को अपने लिए विधिक उपचार पाने में दूसरी बड़ी बाधा आती है ,मसौदा व प्रस्तुतीकरण | इससे उबरने के लिए विधिज्ञ प्रपत्र आधारित याचिका ,जैसा कि वर्तमान में मोटर वाहन दुर्घटना मुआवजा या किसी वसूली वाले दीवानी मुक़दमे में प्रचलित है | उदाहरण के लिए जैसे बैंकों में वांछित सूचना भरकर आम जान अपना कार्य कर पाते हैं इसी तरह साधारण प्रपत्रों के आधार पर लोग आसानी से अपने लिए उपचार की मांग कर सकेंगे |

इनके अतिरिक्त विधिक शिक्षा व जागरूकता को जनसाधारण के जाने व समझने के लिए इनका हर स्तर पर प्रसार किया जाए |सरकार  के तमाम सम्प्रेषण संस्थान और समाचार माध्यमों के मार्फ़त नागरिकों को कानूनों का पालन करने ,उनका सम्मान करने ,और अवज्ञा हो जाने पर स्वयं को राज्य द्वारा प्रस्तावित जुर्माने को भरने या उपयुक्त सज़ा के लिए खुद को प्रस्तुत करने जैसे नागरिक संस्कारों के पालन हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए | और इन सबसे अधिक जरूरी है समाज की छोटी इकाई ,ग्राम क्षेत्र में ग्राम पंचायत आदि और शहरी क्षेत्र में स्थानीय कल्याण समितियों को भी , आपसी विवादों झगड़ों को सुलझाने हेतु पहल करने का प्रयास करने का अधिकार प्रदान किए जाने से भी  न्यायिक संस्थानों पर बढ़ते मुकदमे को बोझ करने में सहायता मिल सकेगी |

अंततः यह कहा जा सकता है कि देश और समाज को यदि सच में ही विकास और सृजन के मार्ग पर चलना है तो उसे फिर अपने ही प्रयासों से मुकदमों और विवादों के दुष्चक्र से बाहर निकलना होगा और इसके लिए आज और अभी से गंभीर प्रयास करने होंगे |

भीड़तंत्र बनता हुआ लोकतंत्र

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jhajikahin/

 

किसी भी लोकतांत्रिक देश सरकार और असमाज में सहमति व सामांजस्य का हुआ जितना जरूरी है उतना ही आवशयक प्रतिरोध ,आलोचना और प्रश्न उठाने की परमपरा जीवित रहना भी चाहिए | फिर संघर्ष से निकले हुए समाधान की व्यापकता  को कोई चुनौती नहीं देता | इंसानी सम्भयता जब से जंगल जीवन से मुक्त हुई तभी से जनांदोलनों का अस्तित्व रहा है | भारत का आधुनिक इतिहास तथा इस वर्तमान तक पहुचंने की सारी बुनियाद ही आन्दोलनों या कहिये की क्रान्ति पर आधारित रहे | भारत ऐसी स्थ्तितियों में अकेला देश नहीं था | उस समकालीन समय में विश्व के अनेक भागों में इन क्रांतियों और उससे उपजी व्यवस्थाओं ने सत्ता पर खुद को काबिज़ कर लिया था |
भारत में स्वतंत्राता प्राप्ति के बाद वामपंथी विचारधारा के आंदोलन ने पूँजीपतियों और मजदूरों के दशकों तक चले संघर्ष की उत्त्पत्ति की | ये वो दौर था जब देश को आजाद हुए बहुत समय नहीं बीता था ा, आजादी में सांस ले रहा युवा वर्ग हर मौके , अवसर ,चुनौती में भागीदारी चाहता था | देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का ज़ज़्बा लिए खुद को स्थापित करने कोई कवायद में उसके जिस्म  ओ जान पर देश लिपटा चिपटा रहता था | पूँजीपतियों जमीदारों के अमानवीय शोषणों के विरुद्ध किसानों का गाँव घर त्याग चले जाना भी एक जनांदोलन ही था | भारतीय समाज में जनांदोलन ,हड़ताल ,बंदी ,रैली आदि का समावेश विरासत में मिलने वाली परमपरा थी | किन्तु सारी स्थितियों ,संघर्षों ,आंदोलनों की सार्थकता तभी तक सुनिश्चित होती है जब तक सब कुछ अनुकूल और मर्यादित हो |
शुरू के जनांदोलनों में जो परिश्रम ,धैर्य और सबसे बढ़कर समाधान पर पहुँचने की नीयत इन आन्दोलनों का मंतव्य हुआ करता था | इनके विरोध के प्रतीक धरना ,हड़ताल ,आमरण अनशन ,दीवारों परलिखना ,पत्र पत्रिकाओं में लेखन का विषय आदि हुआ करता था | धीरे धीरे समाज अधिक संघर्षशील व क्रोधी हुआ तो इन आन्दोलनों में हिंसा का समावेश कराया गया , सार्वजनि सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचा अपना गुस्सा ज़ाहिर करने लगा | ये स्थिति अधिक बदतर होते हुए अब प्रशासन पुलिस के ऊपर पत्तर ,गोली और बम तक चलाने तक पहुँच गयी ,जो बेहद चिंताजनक बात है |
पिछले दो दशकों में भारतीय जनों का हर छोटी बड़ी बात पर , समस्या पर ,किसी शिकायत के लिए सड़कों पर उतर आने की प्रवृत्ति पर सड़क सुरक्षा से जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्था रोड सेफ्टी मिशन सेव द लाइव के शोधकर्ता फ्रेडरिक विलिमस जे  कहते हैं  कि भारत जैसे देश , जहां सड़कें अपने तयशुदा निर्धारित भार से कहीं अधिक दबाव ,देश में बढ़ते वाहनों की संख्या के कारण झेल रही हैं वहीं जनसंघर्ष पर रोज़ाना हज़ारों लाखों की भीड़ अनावस्यक रूप से सडकों  बढ़ाती हैं जिसका असर आसपास के सारे भूक्षेत्र के तनाव पर पड़ता है |

पिछले कुछ दिनों में सरकार  द्वारा पारित नागरिकता क़ानून में संशोधन  के विरुद्ध जिस तरह का प्रदर्शन ,उग्र हिंसा , तोड़फोड़ आगजनी की गयी निर्दोषों की जान गयी और करोड़ों रूपए की सार्वजनिक समपत्ति को नुक्सान पहुंचाया उसने समाज और सरकार को  विवश कर दिया है की ऐसे आन्दोलनों के लिए दिशा निर्देशात्मक कानून लाया जाए और इन उपद्रवियों को ये बोध कराया जा सके की जनांदोलन और जनाक्रोश की आड़ में कोई गैर कानूनी कार्य करने की छूट न मिले |

यहां समाज और विशेषकर उन्हें प्रभावित करने वाले मार्ग निर्देशकों के ज़ेहन में यह जरूर रहनी चाहिए कि इस देश में हिंसक उपद्रव किसी भी जनांदोलन की नीति नहीं रही है कभी चिपको आंदोलन ,नदी के बीच में खड़े होकर ,मौन व्रत ,आमरण अनशन जाने कितने ही प्रकार के जनआंदोलात्मक रास्ते हैं जिनपर चलकर पहले भी आंदोलनकर्ताओं को सफलता मिलती रही है | दूसरी अहम् बात ये की जनांदोलनों को अपने अपने क्षेत्र की विसंगतियों ,अन्याय ,कुरीतियों ,अनुचित के विरूद्ध प्रभावित लोगों की आवाज़ पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता था | न कि संसद द्वारा पारित क़ानून की मुखालफत के लिए |

इन जनांदोलनों के अगुआओं ने मानवीय दुर्गुणोँ से ग्रस्त होकर ताकत और सत्ता पाते ही राजनीति को अपनी नीति का एक हिस्स्सा बना लिया | परिणाम ये हुआ कि राजनीति के प्रभावक्षेत्र में जाकर खुद इन आन्दोलनों में अंदरूनी और बाहरी राजनीति  ही बोलबाला हो गया |सार्वजनिक सम्पत्तियों के नुकसान  व जान माल की क्षति को देखते हुए अब प्रशासन न्यायालय के दिशा निर्देशों  के अनुरूप उपद्रव में तोड़ फोड़ करने वालों की पहचान कर उनसे सारे नुकसान   की भरपाई करने की शुरुआत कर चुकी है और इन कदमों का प्रभाव भी दिख रहा है | आंदोलनकारियों को अब खुद ही अपने लिए नियंत्रित व्यवहार और संयमित  उद्देश्य का रास्ता नियम तय करने चाहिए और पुलिस प्रशासन को भी अब इन हिंसक प्रदर्शनों से निपटने के नए वैकल्पिक उपायों कोआजमाना चाहिए |

 

सरकार की प्रतिबद्धता और प्रस्तावित कानून

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आरक्षण  की नीति लागू करने के विरूद्ध हुए जनांदोलन के काफी समय बाद एक बार फिर किसी प्रस्तावित कानून के मसौदे को विषय बना कर शुरू हुआ आंदोलन देखते ही देखते देश व्यापी आंदोलन बन गया | यह आंदोलन था इंडिया  अगेंस्ट करप्शन नामक संगठन का  जिसने नागरिक आंदोलन के माध्यम से देश भर में जनलोपाल की नियुक्ति की माँग बहुत  ही पुरज़ोर और कारगर तरीके से उठाई थी | तत्कालीन सैरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक में कुछ संशोधन सुझाव पर विचार करने की मांग के साथ ये आंदोलन बहुत प्रभावकारी हुआ  इतना कि बाद में इसके अगुआ सक्रीय राजनीति  कुछ प्रमुख लोगों में शुमार हुए |
ये परिवर्तन का दौर है ,विशेषकर मोबाइल और इंटरनेट ने संवाद और सम्प्रेषण  की व्यापकता को असीमित विस्तार दे दिया है | अन्ना  आंदोलन वो पहला जनसंघर्ष था जब इसमें सरकार द्वारा प्रस्तावित क़ानून के मसौदे को लोने न न सिर्फ पढ़ा  समझा बल्कि उसकी खामियों को उजागर किया ५ और उन्हें दूर करने के लिए विकल्प भी तलाश कर उन्हें सामने रखा  वर्तमान में न तो ये मुहिम प्रभावशाली रहे न ही इससे जुड़े लोगों ने इस लड़ाई को आगे बढ़ाया  किंतु संसद के संघर्ष को सड़क पर खींच लाने की प्रवृत्ति से अब अवाम पूरी तरह से वाकिफ हो चुकी थी  वर्तमान केंद्र सरकार अपने पहले कार्यकाल में सदन की ऊपरी सभा में बहुमत न हो पाने के बावजूद बहुत सारे नए कानूनों व प्रस्तावों पर काम करती रही  किंतु वर्ष २०१९ के आम चुनावों में पुत्र भारी बहुमत से सन्ता में आने के बाद ऊपरी सदन राज्यसभा में भी किसी विधेयक को रोकने की विपक्ष की अपेक्षित संख्या कम हो गयी |
जैसा की अंदेशा था की सरकार दोबारा सत्ता में आई तो अजेंडे पर,वर्षों से लंबित सभी विधेयकों को पटल पर रखेगी | पिछले कार्यकाल में तीन तलाक,आर्थिक आधार पर आरक्षण जैसे गैर पारंपिक विषयों पर विधेयक बनाकर अपनी मंशा को पहले ही स्पष्ट कर चुकी इस सरकार ने अपनी इस बार की शुरुआत जम्मू व् कश्मीर राज्य से सम्बंधित विशेष उपबंध धारा ३७० को समाप्त करके की | इसके बाद पड़ोस के देशो के धार्मिक अल्पसंख्यक जिन्हें सालों से शरणर्थी की तरह जीवन गुजारना पड़  रहा था उन्हें विधिक रूप से नागरिकता प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय नागरिकता कानून वर्ष 1955 में सातवां (छ: संशोधन इससे पूर्व की सरकारों ने किया था ) संसोधन कर नागरिकता संसोधन कानून 2019  को दोनों सदनों से पारित करवा कर लागू भी कर दिया |
इस सन्दर्भ में एक और विचारणीय बिंदु रहा न्यायपालिका का रुख व आदेशों ने भी केंद्रीय सरकार के निर्णयों को संविधान के प्रतिकूल नहीं माना | हाल ही में दायर एक जनहित याचिका में केंद्र सरकार को नोटिस जारी करके पूछा है की जनसंख्या विस्फोट की इस स्थिति से निपटने के लिए सरकार किन उपायों नीतियों पर कार्य कर रही है | केंद्र सरकार जिसने पहले ही लोक कल्याण हेतु प्रस्तावित अधिनियमों जैसे समाज नागरिक संहिता , जनसंख्या नियंत्रण कानून भविष्य में लाए जाने का मन बना लिया है माँननीय न्यायपालिका के निर्देशों के अनुपालन में ज़रा भी विलम्ब नहीं करेगी |

इनके अलावा , धर्मस्थलों व धार्मिक संस्थानों पर नियंत्रण/प्रबंधन विषयक विधेयक , भूसंपत्ति व भवन निर्माण कानून , अखियल भारतीय न्यायिक सेवा आयोग की स्थापना विषयक कानून राज्यसभा अधिकार क्षेत्र सीमितता कानून , स्वर्ण/आभूषण भंडारण सीमितता कानून ,अखिल भारतीय शिक्षा नीति नियामक कानून आदि वो प्रमुख विधेयक हैं जो सरकार द्वारा प्रस्तावित एजेंडे में सर्वोपरि हैं | इन सबके अलावा अन्य बहुत से क्षेत्रों व विषयों पर नए कानून/संशोधन के अतिरिक्त समय के साथ पुराने पद चुके व वर्तमान में औचित्यहीन हो चुके कानूनों के निरसन /संधोशन व परिमार्जन का विचार भी सरकार के प्रस्तावित कार्यसूची में है |

एक अहम प्रश्न जो बार बार इस सन्दर्भ में सामने आ रहा है वो ये की इन कानूनों की संविधानिकता जांचते हुए भी क्या ये कानून कसौटी पर खरा उतर पाएगा ? कानून और  नज़रिया तो भविष्य में पता चलेगा और न्यायपालिका का नज़रिया तो भविष्य में पता चलेगा और ये भिन्न भिन्न विषयों/मामलों पर भिन्न ही होगा किन्तु वर्तमान में जिस तरह से केंद्र सर्कार एक फसलों/प्रस्तावों/नीतियों आदि पर न्यायपालिका ने अपनी मंशा सपष्ट की है उससे तो ये सरकार के लिए काम से काम नकारात्मक तो नहीं कही जा सकती है | उसपर वर्षों से लंबित रामजन्म भूमि विवाद को भी न्यायपालिका ने अपने निर्णय से वर्तमान केंद्र सरकार के मनोनुकूल ही कर दिया |
सारांशतः यह कहा जा सकता है आने वाले चार वर्षों में सरकार ,संसद सत्रों में लोक कल्याण ,विधि ,शिक्षा ,जनसँख्या आदि से जुड़े अनेक विषयों पर प्रस्तावित/विचारित विधेयकों को प्रस्तुत कर कानून बनाने का भरसक प्रयास करेगी | सरकार को चाहिए की जन सचेतता के लिए इन कानूनों को सरल भाषा में, प्रचार प्रसार द्वारा आम लोगों के समक्ष भी रखे ताकि जनभागीदारी बढ़ाने के साथ साथ लोग मानसिक रूप भी इसके लिए तैयार रहें |