#येउनदिनोंकीबातथी
एक पोस्ट पर अनुज देवचन्द्र ने टिप्पणी करते हुए ये कह कर कि आपकी क्रिकेट में फिरकी वाली गेंदबाजी की याद अब भी कभी कभी आ जाती है | और हम फिर से उन्हीं दिनों के यादों में गोते लगाने लगे। स्कूल के दिनों से ही क्रिकेट खेलने का शौक था मगर कद में तब बहुत लम्बे नहीं थे और सहपाठी अपने मजबूत कद काठी और तेज़ गेंदबाज़ी से हमेशा खौफ में डाले रखते थे सो उस वक्त तक बल्लेबाजी में बहुत ज्यादा निपुण नहीं हुए थे। अलबत्ता स्कूल से आने के बाद और छुट्टियों के दिनों में आपसी मैच खेलने का बहुत बड़ा प्रचलन था उन दिनों और हम भी कौन सा अलग थे उन दिनों में। जिसके पास बैट बॉल हुआ करता था वो स्वयं घोषित गावस्कर कपिलदेव से कम नहीं होता था। विकेट तो हम लकड़ी काठी ईंट दीवार पर तीन लाईनें खींच कर किसी से भी बना ही लेते थे।
खैर , तो असल कहानी शुरू हुई गाँव पहुँचने पर। यहाँ ये बता दूँ कि अनुज संजय मेरे साथ ऐसे ही रहता था राम के साथ लक्षमण और बिलकुल स्वभाव भी उनके जैसा ही तीक्ष्ण। मजाल है किसी की जो कोई बात मुझ तक पहुँचने से पहले उससे टकरा कर ना आए। खेल से लेकर पढ़ाई तक सबमें हम एक दूसरे से अभिन्न थे। इसलिए किसी भी क्रिकेट टीम के दो स्थाई सदस्य तो हम दोनों भाई ही हुआ करते थे। और क्रिकेट ही क्यों , बैडमिंटन ,शतरंज , वॉलीबाल , तैराकी , सायक्लिंग सब में हम साथ साथ ही रहते थे। अनुज के मेरे से सिर्फ डेढ़ वर्ष छोटा होने के कारण हमें अक्सर सब जुड़वां ही समझते थे।
गाँव पहुंचे तो गाँव के आम के बागानों के बीच स्थानीय बच्चों के साथ धीरे धीरे खेला शुरू किया। धीरे धीरे नियमित खेलने लगे और दोस्ती से बहुत ही अच्छी टीम बन गई। क्रिकेट का दीवानापन किसी भी लिहाज़ से गाँवों में शहरों से कम नहीं था। ड्यूस बॉल खरीदने के लिए पूरी टीम के सदस्यों द्वारा एक एक दो दो रूपए इकट्ठा करना , सायकल से दूर दूर तक के गाँवों में मैच खेलने जाना , उन्हें अपने गाँव में बुलाना। धीरे धीरे वहां भी टूर्नामेंट प्रतियोगिता आदि की शुरुआत होने लगी थी। वहाँ स्थानीय बच्चों को तब सिर्फ तेज़ सीधे सपाट गेंदबाज़ी की आदत थी। और यहीं से शुरू हुआ हमारा करतब।
क्रिकेट में कुछ अलग सीखने करने के जुनून ने गेंद पर पकड़ , सीम पर उँगलियों की स्थिति , कलाइयों के उपयोग से गेंद को फिरकी देना यानि स्पिन उन दिनों में अपने स्तर पर हम उसमें सिद्धहस्त हो चुके थे। मैं लेग स्पिन में माहिर था और अनुज ऑफ स्पिन में। शुरुआत के दस ओवर तेज़ गेंदबाज़ों के हिस्से रहता था और उसके बाद गेंद आती थी हम दोनों भाईयों के हिस्से में।
मेरे हाथों में बचपन के चोट ,फ्रैक्चर आदि के कारण मेरी कुहनियों की थोड़ी अलग स्थिति बॉलिंग के लिए स्पिन कराने वाली आदर्श स्थिति बना देती थी। बहुत अर्से बाद नरेंद्र हिरवानी और फिर शेन वार्न को वही सब करते देखा तो सोच रहे थे कि इनसे भी कहीं अधिक घातक हुआ करते थे हम तो। तो अगले दस ओवर में हम विपक्षी टीम की पूरी कमर तोड़ दिया करते थे। जब तक बल्लेबाजों को ये समझ आए कि असल में बिलकुल बहार जाती गेंद को छोड़ कर उन्हें निश्चितं नहीं होना है तब तक वो गेंद घूम कर विकेट गिरा दिया करती थी।
बहुत जल्दी ही इसकी बदौलत हमने आसपास के गाँवों की बहुत सी नामी गिरामी टीम को देखते देखते ही रसातल पर ला दिया। अभ्यास के दौरान विश्विद्यालय की टीम से खेलने वाले एक भैया आज़माने के लिए मुझे बॉलिंग की चुनौती देते हुए कहने लगे दिखाओ एक ओवर में हमें भी करके। जब तक वो उस अप्रत्याशित फिरकी के लिए तैयार होते उन्हें लगातार दो गेंदों पर दो बार क्लीन बोल्ड कर दिया। मैदान में सीटियां और हल्ला हो गया गया। फिर क्या था वो तब तक भाँप गए थे हमारी कारीगरी अगले चार गेंदों में उन्होंने जम कर धुनाई की।
बल्लेबाजी में कुछ कुछ श्रीकांत वाला अंदाज़ रहा जिन्हे क्रिकेट में पिंच हीटर कहा जाता है ,यानि गेंद का अगर बल्ले से संपर्क हुआ तो फिर वो सीधा सीमा पार नहीं तो हम मैदान के बाहर। चौथे नंबर पर बल्लेबाजी करने के लिए उतरते हम बहुत बार गेंदबाज़ों की लाइन लेंथ बिगाड़ दिया करते थे। ऐसे ही एक अचानक हुए मैच में जो खेल के मौसम के शुरू होते ही चुनौती स्वरूप हमें खेलने के लिए पड़ोस के गाँव में जाना पड़ा था। बिना अभ्यास के गई हमारी टीम को पहले बल्लेबाजी करनी पड़ी। कुल २० ओवर के मैच में मैंने अकेले ही 19 ओवर दो गेंदे खेलीं और पूरे मैच में मैदान के हर तरह हर तरह के शॉट मार मार के दूसरी टीम को बुरी तरह हताश कर दिया था। वो यादगार पारी रही थी बल्लेबाजी के लिहाज़ से।
एक पड़ोस के गाँव की टीम को हम कभी भी नहीं हरा पाए भरपूर कोशिश करने के बावजूद भी ,जब मौक़ा आया भी कभी एक आध बार तो वे समय से लड़कर विकेट उखाड़ कर हमें ही मैदान से खदेड़ दिए। उन दिनों ये भी आम बात हुआ करती थी।
क्रिकेट के अलावा बैडमिंटन , वॉलीबॉल में भी जबरदस्त खेल कर धूम मचा देते थे। फुटबॉल तो हम लोग गँवारों की तरह खेलते थे सिर्फ गेंद लेकर भागते जाना। एक बार मैच के लिए अन्य किसी गाँव में फुटबॉल खेलने के लिए गए हम बहुत से खिलाड़ियों को बार बार रैफरी द्वारा फाउल देकर रेफरी खुद झुझंला कर बोले ,अबे कुछ नियम वियम पता है तुम लोगों को फुटबॉल का। हमने कहा हाँ , बस इतना की विपक्षी के गोल में गेंद दे मारनी है। उसने और विपक्षी टीम ने भलमनसाहत दिखाते हुए हमें बस कूटा नहीं बाक़ी बेइज्जती में कोई कमी नहीं रखी।
ओह क्या दिन दे वे भी और क्या खेल थे वे भी , तो
पहली फोटो अभी एक वर्ष पहले छोटी बहन के यहां उदयपुर में बच्चों के साथ यूँ ही खेलते हुए
और दूसरी हमारे गाँव के उसी खेल के मैदान की जिस पर हम अभ्यास किया करते थे।
#येउनदिनोंकीबातथी