देश में पढी सुनी देखी जाने वाली रोज़मर्रा की खबरों में दो समाचार अनिवार्य रूप से मौजूद रहते हैं एक भ्रष्टाचार और दूसरा यौन अपराध। हैरानी की बात तो ये है कि पिछले कुछ वर्षों से लगातार ही भ्रष्टाचार और यौन अपराध विषयक कानून बनाए जाते रहने के बावजूद भी इन पर नियंत्रण लगना तो दूर उलटा दोनों की दरों में वृद्धि होती जा रही है विशेषकर यौन अपराधों का विस्तार तो समाज के लिए अब एक घातक चेतावनी बनता जा रहा है ।
रोज़ाना अबोध ,मासूम बच्चियों से लेकर बालिकाओं ,युवतियों व महिलाओं तक के लिए यौन शोषणछेडछाड , शारीरिक मानसिक यातनाओं , तेज़ाबी हमले आदि की बढती घटनाएं जहां तेज़ी से बदलते सामाजिक परिवेश के प्रभाव काअध्ययन करने वाले समाज शास्त्रियों को सोचने पर मजबूर कर रही हैं वहीं अपराधशास्त्री भी दिनोंदिन क्रूर व हिंसक होती जा रही प्रवृत्ति परबेहद चिंतित नज़र आ रहे हैं ।
राष्ट्रीय अपराध व्यूरो के आंकडों पर नज़र डालें तो ये बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि स्थिति दिनानुदिन भयावह होती जा रही है । पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के विरूद्ध दर्ज़ किए गए अपराधों में सबसे अधिक 42% बलात्कार , शोषण एवं यौन हिंसा से संबंधित मामले हैं औरसबसे दु:खद व चिंतनीय बात ये है कि पिछले कुछ वर्षों में इसमें 11% की वृद्धि हुई है । ये साफ़ है कि पिछले दिनों महिलाओं के प्रति बढे यौन अपराधों के लिए बेशक सरकार व समाज में एक तीव्र प्रतिरोधी लहर देखने को मिली । सरकार ने न सिर्फ़ यौन अपराधों की परिभाषा को विस्तर दिया बल्कि अधिक कठोर कानूनों को भी लागू किया । किंतु इसके साथ ही देश के अलग अलग हिस्सों में लगातार होते यौन अपराध जता-बता रहे हैं कि कहीं कुछ भारी गडबड है ।
समाजविज्ञानी इस बात पर भी विमर्श कर रहे हैं कि सुदूर पश्चिम बंगाल के वीरभूम से लेकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आंगन तक आखिर इस प्रवृत्ति का विस्तार इतना अधिक क्यूं हुआ है जबकि अपराधविज्ञानी व दंडशास्त्री इसके लिए कुछ अलग और कमाल के दिलचस्प तर्क रखते हैं ।अपराधशास्त्री कहते हैं “यदि किसी कारणवश व्यक्ति की कामतुष्टि वैधानिक सीमाओं के भीतर नहीं हो पाती है तो वह यौन अपराध करने की ओर प्रवृत्त हो सकता है ।
आशय यह है कि भूख,प्यास आदि की भांति कामवासना भी मानव शरीर की एक प्राकृतिक आवश्यकता है जिसकी तुष्टि के लिए समाज में विवाह की संस्था अस्तित्व में आई । अत: यदि विवाह की संस्था सुदृढ है तो यौन अपराधों की संभावना अपेक्षाकृत कम रहती है । यौन अपराधियों के विश्लेषण के पश्चात एकत्रित किए गए आंकडे भी यह दर्शाते हैं कि विवाहित जीवन व्यतीत कर रहे व्यक्ति प्राय: इन अपराधोंसे दूर रहते हैं । “
वर्तमान हिन्दू विधि के अंतर्गत केवल पति पत्नी के बीच ही लैंगिक संबंध विधिक रुप से उचित व मान्य है अन्य सारे लैंगिक आचरण प्रतिबंधित माने गए हैं। जबकि समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यौन संबंधों के विषय में यह धारणा है कि पुरूष की तुलना में स्त्री के नैतिक आचरण के प्रति समाज अधिक संवेदनशील है । संभवत: यौन अपराधों के संदर्भ में स्त्रियों के प्रति समाज की अधिक संवेदनशीलता का कारण यह है कि इन कृत्यों के पश्चातवर्ती परिणाम पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं के लिए अधिक गंभीर और हानिकारक होते हैं ।
लैंगिक वासना की तुष्टि मानव व्यक्तित्व की जैविक आवश्यकता होने के कारण इसे वैधानिक सीमाओं में संतुष्ठ किया जाना अपेक्षित है । इसलिए विवाह को यौन अपराधों को रोकने वाला एक प्रभावी सेफ़्टी वॉल्व कहा गया है क्योंकि यह व्यक्ति की यौन तुष्टि तथा मनो जैविक आवश्यकता की पूर्ति का साधन है जो उसके व्यक्तिव को निखारता है और उसे यौन अपराधों से परावृत्त रखता है ।
जहां तक इनके वर्तमान कारकों के अन्वेषण की बात है तो समाज के बदलते हुए परिवेश का चक्र अब शायद उस स्थिति की ओर बढ रहा है जहां सभ्यता अपने पुराने कबीलाई व्यवहार की ओर बढती , अधिक हिंसक व उत्तेजित हो रही है । भारतीय समाज को जिस तरह से समलैंगिकता , विवाहेत्तर संबंध, उनमुक्त और स्वच्छंद यौनाचार , अप्राकृतिक यौन व्यवहार आदि जाने कितने सारे उन व्यवहारों का जेनरेलाइजेशन और उन्हें वैधानिक दर्ज़ा दिलाने की जल्दबाज़ी मची हुई है जो कहीं न कहीं समाज के यौनिक पक्ष से जुडा हुआ है ।
समाज का उपभोक्तावादी चरित्र , नशे का सेवन, असंतुलित विकास,तथा कमज़ोर व्यवस्था ने कुल मिलाकर लैंगिक संघर्ष को बढा दिया और प्राकृतिक रूप से अधिक शक्तिशाली पुरूष हमेशा ही प्रताडित करने वाले पक्ष में रहता है ।
इन सबसे अलग मनोविज्ञानी किसी भी अपराध को एक रोग की तरह देखते हैं । सिसेर बकारिया संभवत: प्रथम अपराधशास्त्री थे जिन्होंने अपराध को एक सामाजिक रोग निरूपित किया । दंडशास्त्रियों का मानना है कि आपराधिकता के विरूद्ध संघर्ष की दरिद्रता , शोषण ,बीमारी ,नशाखोरी तथा वेश्यावृत्ति के विरूद्ध संघर्ष माना जाना चाहिए ।
जो भी हो एक तरफ़ महिलाओं के अधिकारों , समानता सुरक्षा और संरक्षण के प्रति संवेदना दिखाता समाज दूसरी ही तरह अपने ही आधे अस्तित्व के प्रति इतना क्रूर, अमानवीय और निर्दयी व्यवहार करता दोहरा चरित्र सा जी रहा है । यौन अपराधों की मौजूदगी किसी भी समाज और देश के पारस्परिक सहिष्णुता के मूलभूत ढांचे के प्रति एक गंभीर चेतावनी की तरह है जिसे हर हाल में हतोत्साहित किया जाना चाहिए । इसे कम से कम इतना सुनिश्चित तो किया ही जाना चाहिए कि ऐसे सभी अपराधियों का मनोबल गिरा रहे ।