भीड़तंत्र बनता हुआ लोकतंत्र

jhajikahin/

 

किसी भी लोकतांत्रिक देश सरकार और असमाज में सहमति व सामांजस्य का हुआ जितना जरूरी है उतना ही आवशयक प्रतिरोध ,आलोचना और प्रश्न उठाने की परमपरा जीवित रहना भी चाहिए | फिर संघर्ष से निकले हुए समाधान की व्यापकता  को कोई चुनौती नहीं देता | इंसानी सम्भयता जब से जंगल जीवन से मुक्त हुई तभी से जनांदोलनों का अस्तित्व रहा है | भारत का आधुनिक इतिहास तथा इस वर्तमान तक पहुचंने की सारी बुनियाद ही आन्दोलनों या कहिये की क्रान्ति पर आधारित रहे | भारत ऐसी स्थ्तितियों में अकेला देश नहीं था | उस समकालीन समय में विश्व के अनेक भागों में इन क्रांतियों और उससे उपजी व्यवस्थाओं ने सत्ता पर खुद को काबिज़ कर लिया था |
भारत में स्वतंत्राता प्राप्ति के बाद वामपंथी विचारधारा के आंदोलन ने पूँजीपतियों और मजदूरों के दशकों तक चले संघर्ष की उत्त्पत्ति की | ये वो दौर था जब देश को आजाद हुए बहुत समय नहीं बीता था ा, आजादी में सांस ले रहा युवा वर्ग हर मौके , अवसर ,चुनौती में भागीदारी चाहता था | देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का ज़ज़्बा लिए खुद को स्थापित करने कोई कवायद में उसके जिस्म  ओ जान पर देश लिपटा चिपटा रहता था | पूँजीपतियों जमीदारों के अमानवीय शोषणों के विरुद्ध किसानों का गाँव घर त्याग चले जाना भी एक जनांदोलन ही था | भारतीय समाज में जनांदोलन ,हड़ताल ,बंदी ,रैली आदि का समावेश विरासत में मिलने वाली परमपरा थी | किन्तु सारी स्थितियों ,संघर्षों ,आंदोलनों की सार्थकता तभी तक सुनिश्चित होती है जब तक सब कुछ अनुकूल और मर्यादित हो |
शुरू के जनांदोलनों में जो परिश्रम ,धैर्य और सबसे बढ़कर समाधान पर पहुँचने की नीयत इन आन्दोलनों का मंतव्य हुआ करता था | इनके विरोध के प्रतीक धरना ,हड़ताल ,आमरण अनशन ,दीवारों परलिखना ,पत्र पत्रिकाओं में लेखन का विषय आदि हुआ करता था | धीरे धीरे समाज अधिक संघर्षशील व क्रोधी हुआ तो इन आन्दोलनों में हिंसा का समावेश कराया गया , सार्वजनि सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचा अपना गुस्सा ज़ाहिर करने लगा | ये स्थिति अधिक बदतर होते हुए अब प्रशासन पुलिस के ऊपर पत्तर ,गोली और बम तक चलाने तक पहुँच गयी ,जो बेहद चिंताजनक बात है |
पिछले दो दशकों में भारतीय जनों का हर छोटी बड़ी बात पर , समस्या पर ,किसी शिकायत के लिए सड़कों पर उतर आने की प्रवृत्ति पर सड़क सुरक्षा से जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्था रोड सेफ्टी मिशन सेव द लाइव के शोधकर्ता फ्रेडरिक विलिमस जे  कहते हैं  कि भारत जैसे देश , जहां सड़कें अपने तयशुदा निर्धारित भार से कहीं अधिक दबाव ,देश में बढ़ते वाहनों की संख्या के कारण झेल रही हैं वहीं जनसंघर्ष पर रोज़ाना हज़ारों लाखों की भीड़ अनावस्यक रूप से सडकों  बढ़ाती हैं जिसका असर आसपास के सारे भूक्षेत्र के तनाव पर पड़ता है |

पिछले कुछ दिनों में सरकार  द्वारा पारित नागरिकता क़ानून में संशोधन  के विरुद्ध जिस तरह का प्रदर्शन ,उग्र हिंसा , तोड़फोड़ आगजनी की गयी निर्दोषों की जान गयी और करोड़ों रूपए की सार्वजनिक समपत्ति को नुक्सान पहुंचाया उसने समाज और सरकार को  विवश कर दिया है की ऐसे आन्दोलनों के लिए दिशा निर्देशात्मक कानून लाया जाए और इन उपद्रवियों को ये बोध कराया जा सके की जनांदोलन और जनाक्रोश की आड़ में कोई गैर कानूनी कार्य करने की छूट न मिले |

यहां समाज और विशेषकर उन्हें प्रभावित करने वाले मार्ग निर्देशकों के ज़ेहन में यह जरूर रहनी चाहिए कि इस देश में हिंसक उपद्रव किसी भी जनांदोलन की नीति नहीं रही है कभी चिपको आंदोलन ,नदी के बीच में खड़े होकर ,मौन व्रत ,आमरण अनशन जाने कितने ही प्रकार के जनआंदोलात्मक रास्ते हैं जिनपर चलकर पहले भी आंदोलनकर्ताओं को सफलता मिलती रही है | दूसरी अहम् बात ये की जनांदोलनों को अपने अपने क्षेत्र की विसंगतियों ,अन्याय ,कुरीतियों ,अनुचित के विरूद्ध प्रभावित लोगों की आवाज़ पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता था | न कि संसद द्वारा पारित क़ानून की मुखालफत के लिए |

इन जनांदोलनों के अगुआओं ने मानवीय दुर्गुणोँ से ग्रस्त होकर ताकत और सत्ता पाते ही राजनीति को अपनी नीति का एक हिस्स्सा बना लिया | परिणाम ये हुआ कि राजनीति के प्रभावक्षेत्र में जाकर खुद इन आन्दोलनों में अंदरूनी और बाहरी राजनीति  ही बोलबाला हो गया |सार्वजनिक सम्पत्तियों के नुकसान  व जान माल की क्षति को देखते हुए अब प्रशासन न्यायालय के दिशा निर्देशों  के अनुरूप उपद्रव में तोड़ फोड़ करने वालों की पहचान कर उनसे सारे नुकसान   की भरपाई करने की शुरुआत कर चुकी है और इन कदमों का प्रभाव भी दिख रहा है | आंदोलनकारियों को अब खुद ही अपने लिए नियंत्रित व्यवहार और संयमित  उद्देश्य का रास्ता नियम तय करने चाहिए और पुलिस प्रशासन को भी अब इन हिंसक प्रदर्शनों से निपटने के नए वैकल्पिक उपायों कोआजमाना चाहिए |

 

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