कुछ दिनों पूर्व छपी एक खबर के अनुसार , हाल ही में नई राष्ट्रीय महिला नीति के प्रस्तावित मसौदे में महिलाओं को त्वरित न्याय दिलवाने के उद्देश्य से विशेष अदालतें (जिन्हें “नारी अदालत “कहा जाएगा ) के गठन का सुझाव दिया गया है | सकारात्मक दृष्टिकोण से इस खबर के दो अच्छे पहलू हैं |पहला ये कि सरकार व प्रशासन समाज में महिलाओं की बदलती हुई स्थिति व परिदृश्य के कारण महिलाओं के लिए एक नई राष्ट्रीय नीति लाने को तत्पर हुई |और दूसरा ये कि अपने इस प्रयास में गंभीरता दिखाते हुए महिलाओं को त्वरित न्याय दिलाने के उद्देश्य से उनके लिए विशेष अदालतों के गठन की कवायद |
एक नागरिक , और विशेषकर सरकारी मुलाजिम , इत्तेफाकन अदालत ही मेरा कार्यक्षेत्र होने के कारण भी , मेरी पहली और आख़िरी प्रतिक्रया यही होगी , कि , नहीं इससे कहीं कुछ भी नहीं बदलेगा , कुछ भी नहीं | कम से कम ये वो उपाय नहीं हैं जो अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल हो पायेंगे , विशेषकर तब जब आप सालों से उन्हें आजमा रहे हैं और दुखद स्थिति ये है कि दिनोंदिन महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध में क्रूरता का स्तर अब पहले से कहीं अधिक है और ये लगातार हर क्षण बढ़ रहा है | यूं किसी भी नए प्रयास या ऐसी किसी कोशिश का नकारात्मक आकलन उचित नहीं माना जाना चाहिए | मगर अफ़सोस यही है कि , प्रायोगिक रूप से ये परिणामदायक उपाय नहीं साबित होंगे |
जिस देश में जितने अधिक क़ानून होते हैं इसका मतलब उस देश का समाज उतना उदंड और कानून का द्रोही होता है .किसी विधिवेत्ता ने इसी बात को बखूबी ऐसे लिखा था | अब बात त्वरित अदालतों की संकल्पना की जो बहुत से कारणों की वजह से वैसा ही अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाया जैसा विशेष अदालतों के मामले में हुआ है | और इसकी कुछ वजहें भी हैं | आसान भाषा में समझा जाए तो महिला अदालत , परिवार न्यायालय , हरित ट्रिब्यूनल , बाल न्यायालय …जैसी परिकल्पनाओं के पीछे एक जैसे विधिक विचार बिन्दुओं वाले वादों को एक विशेष न्यायालय में सुनवाई का अवसर देना , निस्तारण , सम्बंधित मशीनरी का बेहतर उपयोग और अन्य कई कारण , होता है | सरकार द्वारा संसद में इसका प्रावधान करते समय , प्रशासन की मंशा रहती है कि , विशिष्ट अदालतों और त्वरित अदालतों का गठन या स्थापना विशेष रूप से किया जाना चाहिए | किन्तु एक नई अदालत के लिए एक न्यायिक अधिकारी के साथ कम से कम दस कर्मचारी के पूरे सेट अप की अनिवार्य आवश्यकता का फौरी हल न होने के कारण , मौजूदा न्यायाधीशों व् कार्यरत कर्मचारियों में से ही एक तदर्थ व्यवस्था की जाती है | इसका परिणाम ये निकलता है कि इस नई विशेष अदालत की व्यवस्था स्थाई और सुचारू होने तक वो भी अन्य अदालतों के समान ही , अपनी पूरी शक्ति से कार्य करने के बावजूद भी , मुकदमों के बोझ से जूझती सी लगती हैं |
देश का वो तबका जो न्याय व्यवस्था के होते हुए भी लगातार शोषित होता रहा है उनमें दुनिया की आधी आबादी भी है , विडंबना है कि मेरे गृह जिले में १२ वर्ष की एक किशोरी को पारिवारिक दुश्मनी के शिकार के रूप में व्याभिचार के बाद हत्या और उसके शव को जला तक दिए जाने का नृशंश अपराध जब आंदोलित किये हुए है तो ये एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह देश की क़ानून व्यवस्था और खासकर अपराधियों के कभी भी कम न हो पाए मनोबल के लिए समाज याची से ज्यादा याचक बना दिखता है | यह नैसर्गिक न्याय के नियम के विरूद्ध है |
……देश की अदालतों में मुकदमों का बढ़ते बोझ के लिए व्यवस्था को अब बिलकुल अगल और नए सिरे से सोचना होगा
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मेरी कोशिश भी यही रहेगी की साइट पर मैं रोज़ नई नई जानकारियां और अन्य सामग्रियाँ भी पाठकों के लिए उपलब्ध करवाता रहूं | बहुत बहुत धन्यवाद अभि | खूब सारा स्नेह